*रिपोर्ट:मनव्वर कुरैशी*
मंगलौर/पीरपुरा/आज उत्तराखंड के घरों में हरेला पर्व बड़े स्तर पर मनाया जा रहा है। वही आज मोहम्मद इंतजार प्रधान पीरपुरा ने गांव के कब्रिस्तान में पोधा रोहन कर हरेला पर्व मनाया। मोहम्मद इंतजार ने कहा है कि उत्तराखंड के गांवों से देश-विदेश में बसे लोग चिट्ठियों के लिए जरिए हरेला के तिनकों को आशीष के तौर पर भेजते हैं। मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, उतना ही कृषि को फायदा मिलेगा। आइए जानते हैं हरेला के बारे में कुछ खास बातें
देवभूमि उत्तराखंड में आज से हरेला पर्व की शुरुआत हो चुकी है। हरेला का आशीष उत्तराखंड के लोगों के लिए बेहद खास है। यह लोकपर्व सावन के आने का संदेश है, जिसके पीछे फसल लहलहाने की कामना है, बीजों का संरक्षण है और बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद है। उत्तराखंड के गांवों से देश-विदेश में बसे लोग चिट्ठियों के लिए जरिए हरेला के तिनकों को आशीष के तौर पर भेजते हैं। गाजे-बाजे के साथ इस दिन पूरे पहाड़ में पौधे भी लगाए जाते हैं।
मूलतौर पर यह त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। इस दिन कान के पीछे हरेले के तिनके रखे लोग नजर आते हैं। हरेला का मतलब है हरियाली। उत्तराखंड कृषि पर निर्भर रहा है और यह लोकपर्व इसी पर आधारित है। बीजों के संरक्षण, खुशहाल पर्यावरण को भाव और भक्ति से जोड़ते हुए इस पर्व को पूर्वजों ने आगे पीढ़ियों तक पहुंचाया। हरेला पर्व के समय शिव और पार्वती की पूजा का विधान है।उत्तराखंड में सावन मास की शुरुआत हरेला पर्व से होती है। यह तारीख 17 जुलाई के दिन आगे-पीछे रहती है। इस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं। हरेला पर्व से 9 दिन पहले हर घर में मिट्टी या बांस की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, गहत, मास की बिछाई जाती है। दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को छाया में रख दिया जाता है। चौथे-पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। 9 दिन में इस टोकरी में अनाज की बाली जाती हैं। इसी को हरेला कहते हैं। माना जाता है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल।कई गांवों में हरेला मंदिर में पूरे गांव के लिए एकसाथ बोया जाता है। 10 वीं दिन हरेले को काटकर सबसे पहले घर के मंदिर में चढ़ाया जाता है। फिर घर की सबसे बुजुर्ग टीका-अक्षत लगाकर सभी के सिर पर हरेले के तिनके को रखते हैं, एक आशीष के साथ – ‘जी रया जागि रया, दूब जस फैलि जया । आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यू जस तराण है जो, स्याव जस बुद्धि है जो। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया। ’ यानी जीते रहो, जागृत रहो। आकाश जैसे उच्च, धरती जैसा विस्तार हो। सियार की तरह बुद्धि हो, सूरज की तरह चमकते रहो। इतनी उम्र हो कि चावल भी सिल पर पीसकर खाओ और लाठी टेक कर बाहर जाओ। दूब की तरह हर जगह फैल जाओ।

error: Content is protected !!